Thursday, November 19, 2009

गाँव की रित नहीं बदली !!!

अलबेलाजी की बात पर एक बात याद आगई | हमारे चुन्नी भैया भी खाने के बड़े शौक़ीन थे |पर घर में रोज रोज कौन उनके लिए पराठे बनाए ,खीर पूरी जिमाये (खिलाये)|
तंग आकर ससुराल चले गए अब जंवाई जी आये हैं तो खातिर दारी तो होनी ही है|

कभी मालपुए, कभी खीर जलेबी, कभी दाल का हलुवा नित नए भोजन|ससुराल में किसी के घर मिलने जाते तो भी अच्छा अच्छा खाना खूब खातिरदारी|चुन्नी भैया तो ससुराल में रम गए १० दिन तक स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ़ लेते रहे|

फिर घर की याद आई तो घर आ लिए | अब घर आते ही खाना परोसा गया,वही सुखी बाजरे की रोटी और दही की कढ़ी|

चुन्नी भैया मुह बना कर बोले: सब जगह रित बदल गयी पर यहाँ वही रुखी सुखी ही चलती है |