तंग आकर ससुराल चले गए अब जंवाई जी आये हैं तो खातिर दारी तो होनी ही है|
कभी मालपुए, कभी खीर जलेबी, कभी दाल का हलुवा नित नए भोजन|ससुराल में किसी के घर मिलने जाते तो भी अच्छा अच्छा खाना खूब खातिरदारी|चुन्नी भैया तो ससुराल में रम गए १० दिन तक स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ़ लेते रहे|
फिर घर की याद आई तो घर आ लिए | अब घर आते ही खाना परोसा गया,वही सुखी बाजरे की रोटी और दही की कढ़ी|
चुन्नी भैया मुह बना कर बोले: सब जगह रित बदल गयी पर यहाँ वही रुखी सुखी ही चलती है |
कभी मालपुए, कभी खीर जलेबी, कभी दाल का हलुवा नित नए भोजन|ससुराल में किसी के घर मिलने जाते तो भी अच्छा अच्छा खाना खूब खातिरदारी|चुन्नी भैया तो ससुराल में रम गए १० दिन तक स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ़ लेते रहे|
ReplyDeleteबदहजमी हो गई होगी तभी तो रूखी-सूखी खाने आ गये!
ha ha ha ....
ReplyDeleteraghukul reeti sada chali aayee....
बहुत खूब बधाई
ReplyDeleteएक तरफ़ जमाई।
ReplyDeleteएक तरफ़ सारी खुदाई
तोड़ मोड़ के पेश किया है, भाई ।
इब का करें जमाई ....पानी जो है लुगाई...ही ही .बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteशायद इसीलिए कहा गया है कि बदले जमाना पर तुम न बदलना।
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11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?
पागल था, जब ससुराल मे था तो सब खानो की फ़ोटो खींच लेता, घर आ कर रोज प्रिंट करता ओर खाता उन सब को.
ReplyDeleteमजेदार जी
बताओ, इतना भी नहीं बदला..हम्म!!
ReplyDelete... bahut khoob !!!!
ReplyDeleteगाँव की रित नहीं बदली ... और न ही बदलेगी!!!!
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट है पारीक जी। यह रेखा जी कौन है? बहरहाल मै रेखा नही हूँ...
ReplyDeleteगाँव की रीत न बदले तो ही अच्छा।
ReplyDeleteऔर हाँ, फोटू तो बडा गजब के लगाए हैं।
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सिर पर मंडराता अंतरिक्ष युद्ध का खतरा।
परी कथाओं जैसा है इंटरनेट का यह सफर।
bahut badhiya.
ReplyDeleteगाँव तो गाँ व होता है हम सबके भीतर बसा हुआ ।
ReplyDeletegharki murgi daal barabar hoti hai jee, bas vah rukhi sukhi ki kashish hoti hai jo aapko maal pue aur jalebi ke beech bhi ghar ki yaad dila gayi ....
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